Friday, February 12, 2016

दूरियां बढ़ने लगी हैं

चल री सखी पनघट पर उसने पुकार दी है,
कि बन्सरी की मधुर तान अब आने लगी है |१| 

भरोसा हो गया है जल्द होंगे  साहिलों पर, 
कि ये किश्तियाँ लहरों से टकराने लगीं है |२| 

ये अँधेरे कुछ समय तक और है तू हौसला रख, 
कि ये चिड़ियाँ सुबह के गीत फिर गाने लगीं है |३| 

वो समय कुछ और था और ये समय कुछ और है, 
कि इसमे आदमी से आदमी की दूरियां बढ़ने लगीं है |४| 

नकाब  जो  चहरे पे  है  अपने हटा  दो मेहेरबां, 
कि फलक पर  घटाओं की कालिमा छाने लगी है |५| 

भँवरे बेचारे फूल के चक्कर लगायें किस तरह, 
कि जब कलियाँ टूटकर बाजार में बिकने लगीं है |६| 

तुम जैसे भी हो  हू-ब-हू  कैसे दिखाए आईना, 
कि जब चेहरे पे चेहरों की कई परतें लगीं है |७|

-सानू शुक्ल एड0

(लगभग 2 साल पुरानी पोस्ट जो कि ड्राफ्ट में पड़ी थी आज साझा कर रहा हूँ )

2 comments:

  1. क्या बात है ! बेहद खूबसूरत रचना....

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद भाईसाहब :)

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