Wednesday, June 20, 2012

सेकुलरिज्म- एक वाहियात लफ्फाजी

ऐसा लगता है भारत में सेकुलरिज्म अब फैशन बन चुका है..अब तो पढ़े लिखे, संभ्रांत होने का पैमाना भी सेकुलर होना होता जा रहा है माने आप सभ्रांत तभी है जब कि आप बड़े गर्व के साथ घोषणा करते हो कि आप सेकुलर है आपका धर्म से कोई लेना देना नहीं है ! दरअसल पश्चिम जो कि सेकुरारिज्म की अवधारणा का जनक रहा वहां Religion की संकल्पना है, जिसके आधार है बाइबिल नामक एक पुस्तक, एक पैगम्बर या मसीहा जो कि मार्गदर्शन करता है, एक ईश्वर जो इस मत के अनुयायियों पर कृपा करता है और इन अनुयायियों के लिए एक स्वर्ग ! अन्य इस्लाम, यहूदी, आदि सभी मतों की भी यही धारणा है ! संभवतः तभी पश्चिमी विचारकों ने भारत के 'हिंदुत्व' को भी Religion मान लिया !  डॉ सम्पूर्णानन्द ने कहा है कि,"कठिनाई यह है कि संस्कृत में 'मजहब' या religion के लिए कोई शब्द नहीं है ! इसीलिए "धर्म" शब्द की छीछालेदर की जाती है और उसको 'मजहब' या religion का पर्याय बना दिया जाता है | " 

सेकुलरिज्म -
पश्चिम में एक मत के मानाने वालों ने सत्ता पाते ही दुसरे मतावलंबियों पर अत्याचार किये ! जो लोग वहा पश्चिम एशिया से यूरोप गए उन्होंने भी अपने religion की सत्ता मनवाने के लिए मनमुताबिक बल प्रयोग किया! इस प्रकार जब लगा कि अब मानव जीवन असंभव है तो सांप्रदायिक सहिस्नुता का जन्म हुआ ! पोप और राजा की प्रतिद्वंदिता से, कैथोलिक मत के विरोध में प्रोटेस्टेंट मत के जन्म से यह भावना उत्पन्न हुयी कि भिन्न मत, विचार, आस्था के लोग साथ साथ शांतिपूर्वक रहें ! पश्चिम द्वारा प्रदत्त इस शब्द 'सेकुलरिज्म' का अर्थ बाइबिल के आधार पर सैंट मार्क ने बताया, "जो सीजर अर्थात राजा का है वह राजा को दे दो, और जो ईश्वर का है वह ईश्वर को समर्पित कर दो !"  सेकुलरिज्म से सैंट मार्क का आशय लौकिक और अध्यात्मिक जीवन को अलग अलग मानकर राज्य और चर्च को अलग कर अथवा उसके नियंत्रण से मुक्त रखना रहा होगा ! समझने वाली बात है कि यहाँ अभी तक जीवन के आदर्शों को, नैतिक सिद्धांतो को त्यागने की बात कभी नहीं कही गयी ! किन्तु बाद में ब्रैडले और मार्क्स जैसे विचारकों द्वारा सेकुलरिज्म की व्याख्या ईश्वरीय सत्ता का विरोध या निषेध के रूप में किया गया जिसके की भयानक परिणाम किसी से छिपे नहीं है !  वहीँ अपने हिन्दुस्थान में सेकुलरिज्म और सेकुलर की व्याख्या धर्म निरपेक्षता और धर्म निरपेक्ष करने से अपूर्णीय छति होती आ रही है !

सेकुलर का अर्थ धर्म निरपेक्ष नहीं-
डॉ सम्पूर्णानन्द के अनुसार, "धर्म निरपेक्ष शब्द अच्छा नहीं! जो कुछ भी मनुष्य के लिए कल्याणकारी है वह सब धर्म में ही अंतर्भूत है ! अहिंसा, सत्य, परोपकार, लोकसंग्रह भावना, यह सभी धर्म रुपी रत्न के अलग अलग पहलू है !"
हमारे संविधान में भी जब 1976 में 42वें संशोधन द्वारा 'प्रस्तावना' में जोड़े गए सेकुलर शब्द का हिंदी अनुवाद 'पंथ निरपेक्ष' ही किया गया न कि 'धर्म निरपेक्ष' ! 

हिंदुत्व और सेकुलरिज्म-
महात्मा गाँधी ने कहा है कि, "कुछ लोग अपने तर्क एवं बुद्धि सम्बन्धी अहंकार के नशे में आकर बड़े गर्व से यह घोषणा करते है कि उनका 'धर्म' से कोई लगाव नहीं है; लेकिन उनका यह कथन ऐसा ही है जैसे कोई व्यक्ति कहे की वह श्वाश तो लेता है पर उसके नाक नहीं है !"
महात्मा गाँधी ने एक जगह ये भी कहा है, "मेरे धर्म ने ही मुझे राजनीती में धकेला है और मै पूर्ण विनम्रता और दृढ़ता के साथ यह कह सकता हूँ कि जो लोग यह कहते है कि राजनीती का धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है वे वस्तुतः धर्म के मर्म या वास्तविक अर्थ को नहीं समझ पाते !"
स्वामी विवेकानंद के अनुसार, "धर्म ही भारत की आत्मा है"
पूर्व न्यायाधीश एम्. राम जोइस के अनुसार, "'धर्म' व्यापक अर्थ में प्रयुक्त होने वाला संस्कृत का एक महत्वपूर्ण अर्थ है ! संसार की किसी अन्य भाषा में इसका समानार्थक कोई दूसरा शब्द नहीं है ! इस शब्द की सर्वसम्मत परिभाषा नहीं दी जा सकती ! इसकी केवल व्याख्या ही की जा सकती है..जब धर्म का प्रयोग राजा के कर्तव्यों और अधिकारों के सन्दर्भ में किया जाता है तब इसका अर्थ संवैधानिक कानून अथवा राज-धर्म होता है ! इसी तरह जब यह कहा जाता है कि शांति और सामान्य जनता की सम्रद्धि तथा समतायुक्त समाज की स्थापना के लिए 'धर्म-राज्य' आवश्यक है, तब राज्य के सन्दर्भ में 'धर्म' शब्द के प्रयोग का आशय केवल कानून से होता है! अतः 'धर्म-राज्य' से तात्पर्य विधिसम्मत या कानून का शासन (Rule of law ) कायम करना है न कि किसी तरह का 'मजहबी शासन' या 'मजहबी राज्य'!"
यदि सेकुलरिज्म से तात्पर्य राज्य द्वारा किसी भी मजहब, पंथ के साथ भेदभाव करने का निषेध है तो इतिहास साक्षी है की भारत प्राचीन काल से ही
पंथनिरपेक्ष रहा है ! परमपूज्य गुरूजी गोलवलकर के अनुसार, "इस देश के सुदीर्घकालीन इतिहास में मजहब के आधार पर किसी भी नागरिक के साथ कभी भी पक्षपात या भेदभाव नहीं किया गया !"
प्राचीन काल से ही जो हिन्दू अपनी प्रार्थनाओं में , "सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयः, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु माँ कश्चिद् दुख्भाग्वेत " एवं अपनी प्रार्थनाओं के उपरांत जयघोष करता है, "धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, विश्व का कल्याण हो, प्राणियों में सद्भावना हो !" आदि आदि , तो वो हिन्दू तथाकथित सांप्रदायिक कैसे हो सकता है ? वास्तव में हिन्दू कभी भी सांप्रदायिक नहीं हो सकता क्यूंकि सहकार, सहिषणुता परस्पर मेलजोल व सभी मत पंथों के प्रति आदर व सभी जड़-चेतन में अपने ईश्वर को हो देखना आदि की भावना उसके संस्कारों में कूट कूट कर भरी है ! जैसा
कि आदरणीय डॉ0 सुब्रमन्यन स्वामी जी ने कल एक समाचार चैनल में कहा कि, "जो कट्टर हिन्दू है वही कट्टर सेकुलर हो सकता है !"
कुछ भी हो सर पर इस्लाम टोपी पहन लेना मुसलमानों ले साथ रोज़ा इफ्तार के दावतें देना, मुस्लिम वोटों के लालच में आकर राष्ट्रहित से समझौता कर लेना..ये और कुछ होगा , सेकुलरिज्म तो बिलकुल भी नहीं हो सकता ! वास्तविकता यह है कि इस संसार में कोई भी व्यक्ति यहाँ तक कि मनुष्य ही नहीं अपितु जड़, जानवर, पौधे आदि भी धर्म निरपेक्ष नहीं हो सकते ! सबका अपना अपना मूल स्वाभाव अथवा प्रकृति होती है, इस प्रकार धर्म से निरपेक्ष या धर्म को त्यागने का अर्थ तो अपने मूल स्वभाव या प्रकृति को ही त्यागना होगा और उसका परित्याग करके कोई भी अपना अस्तित्व बनाये नहीं रख सकता ! धर्म तो उसके अपने जीवन तथा समाज की धारणा होती है , फिर कोई किस प्रकार उससे निरपेक्ष हो सकता है ?